आज का वाक्य : योगः कर्मसु कौशलम्अर्थ : परिश्रम, उत्कृष्टता का मार्ग है
भगवत् गीता में “योग:कर्मसु कौशलम्” अध्याय २ में ५० वें श्लोक में योग की व्याख्या करते हुए भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि:
बुद्धियुक्तो जहातिह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्धोगाय युजयस्व योग:कर्मसु कौशलम्।।
सामान्य अर्थ है कि “कर्म में कुशलता ही योग है”। किंतु यहां पर यह भी विचारणीय है कि पापकर्म भी यथा चोरी,डाका, व्याभिचार भी कुशलता पूर्वक ही संपादित किए जाते हैं,क्या इन्हें भी योग की श्रेणी में रखा जा सकता है।
निश्चित ही हमें यहां योग श्लोक की प्रथम पंक्ति पर विचार करना चाहिए। बुद्धि युक्त हो कर सुकर्म एवं दुष्कर्म को योग से युजयस्व होकर कुशलता पूर्वक कर्म करना चाहिए।
कोई भी कर्म करने से पूर्व योगस्थ होना चाहिए जिससे कार्य की कुशलता में संदेह नहीं रह जाता है। योग पूर्वक किये गये कर्मो के फल के परिणाम की भी चिंता नहीं करनी चाहिए क्योंकि वे निष्काम होते हैं